कानून के विभिन्न रूपों का वर्णन तथा कानून के विभिन्न सम्प्रदाय का वर्णन – Sab Sikho

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आज का यह पोस्ट बहुत ही महत्वपूर्ण होने वाला है क्योंकि आज के पोस्ट में मैं बताने जा रहा हूं की कानून के विभिन्न रूप को तथा कानून के विभिन्न संप्रदाय का पूर्ण वर्णन किया गया है। तो चलिए इसके बारे में निचे दिया गया है तो अंत तक जरूर पढ़ें।

कानूनों का विभिन्न रूपों तथा कानून के विभिन्न सम्प्रदायों का वर्णन

कानून के विभिन्न रूपों का वर्णन कीजिए

कानूनों का वर्गीकरण निम्न प्रकार से किया जाता है।

  1. राष्ट्रीय कानून (National law)- वे कानून हैं, जिनका सम्बन्ध राज्य की सीमा में रहनेवाले निवासियों से होता है।
  2. अंतर्राष्ट्रीय कानून (International law)- वे नियम हैं, जो एक से अधिक राष्ट्रों अथवा राज्यों से सम्बन्धित होते हैं।
  3. संवैधानिक कानून (Constitutional law)- ये कानून राज्य के संगठन से सम्बंधित होते हैं। ये सरकार के विभिन्न भागों के कार्यों को निश्चित करते हैं। ये कानून लिखित और अलिखित दोनों प्रकार के हो सकते हैं।
  4. साधारण कानून (Ordinary law)- ये कानून राज्य व नागरिकों के सम्बन्ध को निर्धारित करते हैं। इन कानूनों का विभाजन सार्वजनिक कानून और व्यक्तिगत कानून के रूप में किया जाता है।
  5. सार्वजनिक कानून (Public Law)- ये कानून व्यक्ति और राज्य के सम्बंधों को निर्धारित करते हैं। नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करते हैं।
  6. व्यक्तिगत कानून (Private Law)- ये कानून व्यक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों को निर्धारित करते हैं.
  7. प्रशासनिक कानून (Administrative law)- इनका सम्बन्ध सरकारी अधिकारियों के कार्यों, दायित्वों तथा उनके नागरिकों के प्रति व्यवहार से होता है। फ्रांस में इस प्रकार के कानूनों का प्रचलन है।
  8. संविधि (Statute) – इन कानूनों का निर्माण विधानमंडल द्वारा साधारण प्रक्रिया के अन्तर्गत होता है।
  9. अध्यादेश (Ordinance)- उन कानूनों को कहते हैं जिनको राष्ट्राध्यक्ष द्वारा विशेष परिस्थितियों पर काबू न पाने के लिए जारी किया जाता है।

कानून के विभिन्न सम्प्रदायों का वर्णन कीजिए

कानून के विभिन्न सम्प्रदाय (Different school of Law)- कानून की व्याख्या करने के लिए निम्नलिखित सम्प्रदाय प्रचलित हैं-

  1. ऐतिहसिक दृष्टिकोण (Historical School)- इस सम्प्रदाय के समर्थकों में सर फेडरिक वॉन सेविनी, सर हेनरी मेन, मैटलैंड और फ्रेडरिक पोलक मुख्य हैं। इस विचार के अनुसार कानून परम्पराओं, रीति- रिवाजों तथा लोक भावनाओं से विकसित होता है। कानून किसी संस्था द्वारा जारी किए गए आदेशों का नाम नहीं है अपितु उनका धीरे-धीरे विकास हुआ है।
  2. दार्शनिक सम्प्रदाय (Philosophical School)- इस सम्प्रदाय का मुख्य प्रतिपादक जोसफ कोहलर (Joseph Kohler) है। हीगल, काण्ट और पाउण्ड ने भी उसका समर्थन किया है। इस सम्प्रदाय के मानने वालों का जोर इस बात पर है कि कानून का आदर्श रूप होना चाहिए। परन्तु इसका मुख्य दोष यह है कि दार्शनिक दृष्टिकोण वास्तुपरकता से कोसों दूर है। 
  3. विश्लेषणात्मक सम्प्रदाय (The Analytical School)- इसे कानून का सकारात्मक सम्प्रदाय (The Analytical School)- इसे कानून का सकारात्मक सम्प्रदाय (The positive school of law)- भी कहा जाता है। इसका प्रवर्तक जॉन आस्टिन है। उसके अनुसार हमें उन कानूनों का ही पालन करना चाहिए, जिन्हें राज्य संस्था द्वारा निर्मित किया गया है।
  4. तुलनात्मक सम्प्रदाय (The Comparative School)- इस दृष्टिकोण में अतीत और वर्तमान की तुलना करने के बाद कानून का वास्तविक रूप निर्धारित किया जाना चाहिए।
  5. समाजशास्त्रीय सम्प्रदाय (The Sociological School)- मुख्य समर्थक उयुग्वी तथा क्राब हैं। इस सम्प्रदाय के अनुसार कानून सामाजिक शक्तियों की उपज होता है।

कानून और नैतिकता के सम्बन्धों की व्याख्या कीजिए

राजनीतिशास्त्र के बहुत से विद्वान यह मानते हैं कि कानून और नैतिकता दोनों का आपस में बहुत गहरा सम्बंध है। दोनों का यह सम्बन्ध इतना दृढ़ और घनिष्ट है कि इन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता परन्तु कुछ अन्य विचारक कानून और नैतिकता को एक-दूसरे से पृथक मानते हैं। दोनों प्रकार के विचारों का अध्ययन निम्नलिखित ढंग से किया जा सकता है-

कानून और नैतिकता में समानताएंl (Similarities between the Law and Morality)

(1) दोनों का उद्देश्य समान है -(Both have the same objectives)- दोनों का उद्देश्य व्यक्तियों के आचरण, व्यवहार व इच्छाओं को नियंत्रित तथा नियमबद्ध करना है। दोनों ही हमारे नैतिक स्तर को ऊंचा करना चाहते हैं। दोनों ही हमें आदर्श नागरिक बनने की शिक्षा देते हैं। एक आदर्श नागरिक तभी बन सकता है जब उसका चरित्र ऊँचा व सदाचारी हो । आदर्श नागरिक से ही आदर्श राज्य बनता है। प्लेटों ने कहा था, ‘सबसे अच्छा राज्य वह है जो व्यक्ति में अधिक से अधिक गुणों को विकसित कर सके।”

(2) नैतिकता कानून का आधार है (Morality is the base of law)- जब दोनों का उद्देश्य नागरिकों की नैतिक भावना का विकास करना है तो यह तभी सम्भव है जब कानून का आधार नैतिकता हो । राज्य दुराचारी व बुरे व्यक्तियों को दण्ड देकर उन्हें सदाचारी और नैतिक बनाने का प्रयास करता है। राज्य अनैतिक कार्यों पर कानूनी प्रतिबंध लगाता है। उदाहरणस्वरूप जुआ खेलना, चोरी करना, दूसरों का अपमान करना आदि ऐसे अनैतिक कार्य हैं जिसके लिये मनुष्य को दण्ड दिया जाता है। जैसे भारतीय संविधान में अस्पृश्यता या छुआछूत कानूनी अपराध है। वास्तव में इस कानून का आधार नैतिकता है, क्योंकि यह मनुष्य-मनुष्य में घृणा उत्पन्न करता है।

कानून और नैतिकता में अंतर (Distinction between Law and Morality)

(1) कानून व्यक्ति के केवल बाहरी आचरण से सम्बन्धित होते हैं (Law is related with the outer behaviour of a person)- नैतिकता और कानून में प्रमुख अन्तर यह है कि नैतिकता के अध्ययन क्षेत्र में व्यक्ति का सम्पूर्ण जीवन, उसके विचार और व्यवहार सभी आते हैं, जबकि कानून उसके बाहरी आचरण का ही अध्ययन करता है। व्यक्ति के विचार कितने ही अनैतिक हों, किन्तु उन्हें तब तक गैर-कानूनी नहीं कहा जा सकता जब तक कि उनसे दूसरे व्यक्ति को हानि न हुई है।

(2) कानून के पीछे राज्य की शक्ति होती है -(There is the force of state to support law)- कानून के पीछे राज्य की शक्ति होती है। यदि कोई व्यक्ति कानून का पालन न करे तो राज्य उसे दण्ड देता है, जबकि नैतिक नियमों का पालन व्यक्ति अपनी अन्तर्रात्मा की आवाज पर स्वेच्छा से करता है। नैतिक नियमों का पालन कराने के लिए व्यक्ति को राज्य द्वारा बाध्य नहीं किया जा सकता।

निष्कर्ष (Conclusion)– कानून और नैतिकता के सम्बन्ध में उपरोक्त अध्ययन करने से यह बोध होता है कि दोनों में घनिष्ठ सम्बन्ध है। यद्यपि कुछ बातों में दोनों में अंतर भी होता है किन्तु दोनों का मूल भाव एक ही है। कानून और नैतिकता के उद्देश्य समान है। कानून और नैतिकता एक-दूसरे के पूरक हैं।

कानून और नैतिकता की अवधारणा की भारतीय परिप्रेक्ष्य में व्याख्या

कानून का अर्थ समझने के लिए हमें हिन्दू धर्म ग्रंथों में रुचि लेनी होगी। हिन्दू धर्म ग्रन्थों के अनुसार कानून धर्म की एक शाखा है। धर्मशास्त्रियों विशेषकर मनु, याज्ञवल्कय, नारद और बृहस्पति द्वारा लिखित स्मृतियों में कानूनी व्यवस्था का उल्लेख किया गया है। ये सभी स्मृतियाँ वेदों पर आधारित हैं। इस प्रकार हिन्दू सामाजिक व्यवस्था के लिए धर्मग्रंथ-वेद और स्मृतियां ये सभी कानून के प्रमुख स्रोत हैं। हिन्दू धर्मग्रंथों में कानून का प्रयोग धर्म की शाखा के ही रूप में किया गया है।

धर्म का अर्थ सामाजिक, धार्मिक, नैतिक और कानूनी कर्त्तव्यों और उत्तरदायित्वों के सामूहिक समूह से है। स्मृतियों ने जहां व्यक्ति, समाज के कर्त्तव्यों को धर्म पर आधारित किया है वहाँ राजा और उसके कर्त्तव्य तथा शासन को चलाने के नियम (कानून) धर्म द्वारा निर्धारित होते हैं।

धर्मशास्त्रों के अनुसार राजा ईश्वर द्वारा बनाया गया है। वह न्याय करता है। उसका यह दायित्व है कि वह सभी चारों वर्ग और चार आश्रमों के धर्म को धर्मानुकूल संचालित करें। प्रशासन को संचालितर करने के लिए राजा को यह अधिकार है कि यदि कोई व्यक्ति धर्म का उल्लंघन करे तो वह उन्हें दण्ड दें।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि राजतंत्रीय व्यवस्था में प्रशासन का उत्तरदायित्व राजा और मंत्रियों द्वारा धर्मशास्त्रों के आधार पर निश्चित नियमों के अनुसार (जिन्हें कानून कहा जाता जा सकता है) संचालन करना था। मनु ने कानून के चार स्रोत बताए हैं- (1) श्रुति या वेद (2) स्मृतियां (3) रीति-रिवाज (4) परम्पराएं।

मनु ने यह भी स्पष्ट किया है कि इनमें से यदि किसी का वेदों से मतभेद होता है तो वह मान्य नहीं होगा। इस प्रकार हिन्दू विधिशास्त्र के प्रमुख स्रोत-वेद, स्मृतियां, रीति-रिवाज, परम्पराएं, मीमांसा आदि हैं। कौटिल्य के अनुसार कानून के स्रोत- (1) धर्म (2) व्यवहार (Contract) (3) चरित्र (character) तथा (4) राजा के आदेश हैं।

ए. एन. मुल्ला ने अपनी कानूनी पुस्तक ‘Hindu Law’ में कानून के स्रोतों का उल्लेख किया है। वे हैं (1) वेद (2) स्मृतियां (3) रीति-रिवाज और परम्पराएं (4) न्यायालयों के निर्णय तथा (5) टीकाकारों की व्याख्याएं- मिताक्षरा और दयाभाग।

ब्रिटिश शासन काल में हिन्दू कानून का धर्मशास्त्रों के अनुसार संकलन किया गया और न्यायिक निर्णयों द्वारा उनकी व्याख्या भी की गयी।

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