स्मृतियों में धर्म की व्याख्या किस प्रकार की गई है ? धर्म की संक्षिप्त रूप में व्याख्या कीजिए – Sab Sikho

आज इस पोस्ट के माध्यम से हम जानेंगे की स्मृतियों में धर्म की व्याख्या किस प्रकार की गई है तथा हम यह भी जानेंगे कि धर्म के स्रोत क्या है। यह सबी जानकारी नीचे दी गई है तो चलिए पढ़ना शुरू करते हैं।

स्मृतियों में धर्म की व्याख्या किस प्रकार की गई है ? धर्म के स्रोत

स्मृतियों में धर्म की व्याख्या और विवेचना

भारतीय धर्म-ग्रंथों में विशेष रूप से वेदों पर आधारित धर्म की व्याख्या विभिन्न स्मृतियों में की गयी है। मनु, याज्ञवलक्य, नारद व पाराशर द्वारा लिखित स्मृतियों में धर्म की व्याख्या की गयी है। इनमें मनुस्मृति को सबसे अधिक महत्व दिया गया है।

स्मृतियों के अनुसार धर्म का अर्थ निम्नलिखित प्रकार से किया गया है-

धर्म शब्द में हिन्दू समाज से सम्बंधित जीवन के सभी अंगों को नियंत्रित करने वाले सिद्धांत हैं। व्यक्ति समाज का एक सदस्य है । अतः उसके द्वारा समाज के प्रति कुछ दायित्व हैं जिन्हें पूरा करने की योग्यता तथा इसके साधनों से अवगत होना धर्म का स्वरूप है। इस प्रकार से व्यक्ति धर्म का अनुसरण करके मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। इसके लिए वर्ण व्यवस्था व आश्रम अवस्था का उल्लेख किया गया है।

स्मृतियों के अनुसार चार वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र हैं। ब्राह्मण का धर्म विद्या दान करना व दान ग्रहण करना, यज्ञ करना तथा अध्यापन करना व पढ़ना आदि है। जबकि क्षत्रिय का धर्म प्रजा का संरक्षण करना है, शस्त्र धारण करना उसकी जीविका है। वैश्य का धर्म कृषि तथा व्यापार है। शूद्र का धर्म अथवा कर्म अन्य तीनों वर्णों की सेवा करना है। आश्रम भी चार बताए गए हैं – 1. ब्रह्मचर्य 2. गृहस्थ 3. वानप्रस्थ और 4. संन्यास ।

धर्म के स्रोत बताइये

धर्म के विषय में सर्वप्रथम उल्लेख तो वेदों में पाया जाता है, परन्तु धर्म की व्याख्या मुख्य रूप से मनुस्मृति, याज्ञवल्कय स्मृति, नारद स्मृति तथा पाराशर स्मृति में पायी जाती है, इनमें मनुस्मृति सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। इन्हीं स्मृतियों के आधार पर रामायण, महाभारत, उपनिषद्, गीता और बाद के धर्म-ग्रन्थों में भी धर्म पर आधारित व्यवस्थाओं का उल्लेख हुआ है।

इन स्मृतियों में सभी वर्णों, आश्रमों और सभी व्यवस्थाओं के कर्तव्यों को बतलाया गया है। हिन्दू धर्म-ग्रन्थों में मोक्ष प्राप्ति के लिए कर्तव्यों पर जोर दिया जाता है। इन कर्तव्यों के लिए अनुशासनात्मक व्यवस्थाएं भी मनुस्मृति में निश्चित की गई है जिन्हें मनु ने धर्म के लक्षण कहा है।

मनुस्मृति के अनुसार धर्म की विशेषताएं

मनुस्मृति में धर्म के 10 लक्षण बताएं गए हैं-

(i) धृति (Fortitude or Forbearance) – धृति का अर्थ है सांसारिक सुखों की प्राप्ति की कामना पर नियंत्रण रखना। धृति का गीता में तीन भेद तामसिक, राजसी और सात्विक आदि गुणों का उल्लेख किया गया है।

तामसिक धृति भोजन, भौतिक सम्पदाएँ आदि जैसे गलत कार्यों से सम्बंधित है। राजसी धृति धन, सत्ता और मनोरंजन से सम्बंधित है। सात्विक धृति सांसारिक वस्तुओं से विरक्ति रखते हुए आदर्श मूल्यों को महत्व देती है।

(ii) क्षमा (Forgiveness)- क्षमा से तात्पर्य है अपमानित होने पर भी कोई प्रतिक्रिया न करना।

(iii) दम (Control on the sense organs)- दम से अर्थ आत्म नियंत्रण से है। व्यक्ति के मस्तिष्क में किसी के दुर्व्यवहार से जो क्रोध पैदा हो रहा है उस पर नियंत्रण करना ही दम है।

(iv) अस्तेय (Non stealing)- अस्तेय का अर्थ है कि मन, वचन और कर्म से किसी दूसरे व्यक्ति की वस्तुओं पर अधिकार नहीं करना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति को ईमानदारी से कार्य करके अपना जीवन निर्वाह करना चाहिए।

(v) शौच (Purity)- शौच से अर्थ मन की पवित्रता से है। व्यक्ति जो भी काम करे पवित्र मन से करे। उसके मन में किसी प्रकार की दुर्भावना नहीं आनी चाहिए।

(vi) इन्द्रिया-निग्रह (Control over the organs of perceptions)- व्यक्ति को अपनी इन्द्रियों पर पूरा नियंत्रण रखना चाहिए। उदाहरण के लिए यदि कछ देखने से मस्तिष्क खराब होता है या इच्छाओं के प्रति भावनाएं बढ़ती है तो उससे व्यक्ति को दूर रहना चाहिए।

(vii) विवेक या बुद्धि (Wisdom)- धर्म का एक प्रमुख लक्षण बुद्धि है जिसके द्वारा व्यक्ति विवेक का प्रयोग करता है और अपनी भावनाओं पर नियंत्रण करके धर्म का पालन कर सकता है।

(viii) विद्या (Knowledge)- विद्या के द्वारा व्यक्ति सभी प्रकार की मनोवैज्ञानिक आसक्तियों से दूर रहकर आत्म-ज्ञान प्राप्त करें।

(ix) सत्य (Truthfulness)- इसका अर्थ है कि हम मनसा, वाचा, कर्मणा से सच्चाई का प्रयोग करें।

(x) आक्रोश (Without Anger)- किसी भी प्रकार की स्थिति में क्रोध न करना भी धर्म का एक लक्षण है।

धर्म की संक्षिप्त रूप में व्याख्या कीजिए

धर्म की व्याख्या (Explanation of Dharam)- धर्म की व्याख्या निम्न प्रकार से की जा सकती है।

(i) जीवन दर्शन के सिद्धांत के रूप में – धर्म मानवीय गुणों, नैतिकता तथा कर्तव्यों की पूर्ति के रूप में ज्ञान प्रदान करता है। धर्म मानव को नैतिक गुणों द्वारा आध्यात्मिक आधार पर व्यक्तिगत तथा सामाजिक द्वन्द्वों से दूर रखता है।

धर्म मानव का मार्ग-दर्शक है। स्वार्थ, अहं, काम, क्रोध, मोह आदि पर अंकुश लगाने हेतु मनुष्य को प्रेरणा देता है। धर्म के द्वारा व्यक्ति को अनुशासन-प्रिय बनाया जाता है। सामाजिक जीवन में सामंजस्य बनाया जाता है।

(ii) धर्म आचरण व्यवस्था के रूप में – हिन्दू धर्म की स्मृतियों ने व्यक्ति के समाज, राष्ट्र और मानवता से सम्बंधित अच्छे आचरण को कर्तव्यों के रूप में माना है।

स्मृतियों ने वर्ण व्यवस्था और वर्णाश्रम-व्यवस्था के अनुसार लोगों के आचरण को निश्चित किया है। व्यक्ति के कर्तव्यों को स्वधर्म कहा गया है। इसी प्रकार, धर्मशास्त्रों द्वारा स्त्री-पुरुषों के कर्तव्य, परिवार के कर्तव्य, राजा के कर्तव्य (राज धर्म), प्रजा के कर्तव्य तथा युग धर्म (कर्त्तव्य) तक का वर्णन किया है।

(iii) धर्म व्यक्ति और समाज के अभ्युदय के रूप में – धर्मशास्त्रों में धर्म के जिन मूल्यों और आदर्शों को बतलाया गया है उनसे व्यक्ति, समाज, राष्ट्र और सम्पूर्ण मानवता का उत्थान निश्चित होता है।

(iv) धर्म एक साध्य के रूप में – भारतीय हिन्दू धर्म-शास्त्रों के अनुसार व्यक्ति धर्म को अपनाकर अर्थात्ध र्म का पालन करने से मोक्ष प्राप्त कर लेता है। सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम का आदर्श धर्म द्वारा ही सम्भव है। अन्त में कहा जा सकता है कि धर्म व्यक्ति के कल्याण का साधन है।

धर्म के अनुसार (विशेषतया हिन्दू धर्म की मान्यता के अनुसार) नास्तिक भी यदि सत्य के प्रति लगन रखता है और स्वधर्म (यहां पर धर्म कर्तव्य का पर्याय है) का पालन करता है तो वह भी धार्मिक व्यक्ति कहलाता है। सत्य को जानने का धर्म एक साधन है। हिन्दू धर्म में अनेक सम्प्रदायों के अन्तर्गत सत्य को खोजने का ढंग है।

धर्म की मार्क्सवादी दृष्टिकोण की व्याख्या कीजिए

मार्क्सवाद में धर्म को महत्व नहीं दिया गया है। आधुनिक युग में यूं तो अधिकांश राज्य धर्म निरपेक्ष राज्य है, वे धर्म को व्यक्ति का निजी मामला मानते हैं। मार्क्स कहता है कि “धर्म मानवता की अफीम है। (“Religion is the opium of mankind”). इसका भाव यह है कि जो व्यक्ति किसी धर्म का अनुयायी बन जाता है तो वह भाग्यवादी हो जाता है।

हर बात को भगवान पर छोड़ देता है और आलसी बन जाता है। धर्म को मानने वाला व्यक्ति अपने काम और श्रम में कम विश्वास रकरता है और धार्मिक स्थानों पर अधिक समय बिताता है। धर्म की मान्यताओं को भी पूंजीवादियों द्वारा बनाया गया है। अतः वे भी शोषण करने में सहायक होते हैं। श्रमिक का भाग यद्यपि पूंजीपति हड़प जाता है परन्तु श्रमिक इसे भगवान की इच्छा समझ लेता है।

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