अधिकार और दावे में क्या अंतर है? अधिकार व्यक्ति की उन्नति के लिए क्यों आवश्यक है ? – Sab Sikho

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आज की यह पोस्ट बहुत ही रोचक होने वाला है क्यूंकि हम जानेंगे की अधिकार और दावे में क्या अंतर है तथा यह भी जानेंगे कि अधिकार व्यक्ति की उन्नति के लिए इतना आवश्यक क्यों होता है? तो आइए जानते हैं इस पोस्ट के माध्यम से।

अधिकार और दावे में अंतर – अधिकार व्यक्ति की उन्नति के लिए आवश्यक

अधिकार क्या है? अधिकार और दावे में क्या अंतर है?

अधिकार वे सुविधा है जिनके द्वारा मनुष्य अपना विकास करता है। सुविधाएं समाज द्वारा प्रदान की जाती है। अधिकार के कुछ प्रमुख परिभाषाएं निम्नलिखित हैं-

(i) लास्की – “अधिकार सामाजिक जीवन की वे परिस्थियाँ हैं जिनके बिना साधारणत: कोई मनुष्य अपना विकास नहीं कर सकता।’

(ii) हॉलैंड- “अधिकार एक व्यक्ति द्वारा दूसरे व्यक्ति के कर्तव्यों को समाज के मन और शांति द्वारा प्रभावित करने की क्षमता है।”

अधिकार एवं दावे में अंतर-

अधिकार मनुष्य द्वारा प्राप्त वे दावे होते हैं जिन्हें प्राप्त करके वह उन्नति करता है। अतः अधिकार दावों का दूसरा नाम है, परन्तु अधिकारों और दावों में निम्नलिखित अंतर है-

(i) सभी अधिकार दावे अवश्य होतें हैं, परन्तु सभी दावे अधिकार नहीं होते।

(ii) अधिकारों के लिए दावों का सामाजिक होना आवश्यक होता है।

(iii) दावोंको जब समाज और राज्य की ओर से मान्यता प्राप्त होती है तो वह अधिकार बनता है।

अधिकार व्यक्ति की उन्नति के लिए क्यों आवश्यक है ?

(i) अधिकार व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास के लिए आवश्यक है।

(ii) अधिकार व्यक्ति के अंदर पाई जाने वाली शक्तियों में विकास के लिए आवश्यक है।

(iii) व्यक्ति और समाज की उन्नति के लिए भी अधिकार आवश्यक है।

(iv) अधिकार सरकार को निरंकुश बनने से रोकते हैं

(v) अधिकार सामाजिक कल्याण का एक साधन है।

(vi) अधिकार व्यक्ति के जीवन को सुखमय बनाने के लिए आवश्यक है।

क्या अधिकार असीम होते हैं?

अधिकार असीम नहीं होते हैं। असीम अधिकार विरोधाभाष का परिणाम होता है। असीम अधिकार से तात्पर्य ‘कानून रहित शासन’ है। असीम अधिकार से व्यक्ति स्वेच्छाचारी हो जाता है और गलत-सही कुछ भी कर सकता है। ऐसे में अधिकार का उपयोग केवल शक्तिशाली व्यक्ति कर सकता है और कमजोर का दमन होत रहेगा।

परंतु अधिकारों को सभी जगह सीमित नहीं किया जा सकता। राष्ट्रीय अखण्डता, कानून और व्यवस्था के संरक्षण और शिष्टाचार आदि के दायरे में ही अधिकार का प्रयोग किया जा सकता है।

मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास में शिक्षा की भूमिका

मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास में शिक्षा की भूमिका- मनुष्य के व्यक्तित्व के विकास में शिक्षा की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। शिक्षा से लाभान्वित होकर व्यक्ति सार्वजनिक विषयों की चर्चा में रुचि ले सकता है। शिक्षित होकर ही व्यक्ति सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक कार्यों को करने में सक्षम हो सकता है और उसकी मांग कर सकता है।

यह आवश्यक नहीं कि सभी को समान शिक्षा दी जाए, क्योंकि लोगों की क्षमताओं  और रुचियों में अंतर और विभिन्न परिस्थितियों में अंतर होता है। परंतु समाज में प्रत्येक व्यक्ति को न्यूनतम शिक्षा  की सुविधा अवश्य मिलनी चाहिए। जिससे व्यक्ति नागरिक अधिकारों और कर्त्तव्यों को समझ सके और समाज के आवश्यक कार्यों में भाग ले सके।

राज्य की अवज्ञा नागरिक की परिस्थिति

नागरिक गैर-कानूनी सत्ता वाले राज्य की अवज्ञा कर सकता है। यह अधिकार जनता को प्राप्त अधिकारों में सर्वाधिक मौलिक माना गया है। एक अच्छी सरकार को ऐसा अधिकार अपने नागरिकों को प्रदान करना चाहिए।

ऐसे अधिकार के कारण लोग तानाशाही और स्वेच्छाचारी के विरुद्ध आवाज उठा सकते हैं। स्वतंत्रता से पूर्व भारत में महात्मा गांधी ने अवज्ञा के अधिकार का प्रयोग असहयोग आंदोलन (1920-22) तथा सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930-34) में किया था।

निम्नलिखित पर टिप्पणी लिखिए-

(क) समानता का अधिकार।

(ख) भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।

(ग) काम करने का अधिकार।

(क) समानता का अधिकार – भारतीय संविधान में मूल अधिकारों का वर्णन धारा- 14 से 18 में किया गया है। इस अधिकार के अंतर्गत इन धाराओं का वर्णन निम्न है-

(i) सभी व्यक्ति कानून के समक्ष समान है तथा सबको कानून द्वारा समान संरक्षण प्राप्त होगा (धारा 14) ।

(ii) राज्य नागरिकों में धर्म, जाति, नस्ल, रंग, लिंग, जन्म स्थान अथवा इनमें किसी भी आधार पर भेद नहीं करेगा – (धारा 15 ) ।

(iii) राज्य अवसर प्रदान करते समय तथा नौकरियां देते समय नागरिकों के बीच धर्म, जाति, रंग, भाषा, लिंग, जन्म स्थान आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा – (धारा 16 ) ।

(iv) संविधान अस्पृश्यता को संवैधानिक अपराध मानता है- (धारा 17 ) ।

(v) सेना व शिक्षा संबंधी उपाधियों को छोड़कर कोई भी अन्य उपादियाँ नहीं दी जाएंगी- (धारा 18)। राज्य ऐसे कानून बना सकता है जो कि निर्बल के पक्ष में हो तथा शक्तिशाली का विरोध करते हों । इसे समानता के अधिकार का नहीं कहा जाएगा। समानता के अधिकार पर अनेक अपवाद है। अनुसूचित जातियों व जनजातियों, स्त्रियों, बच्चों, श्रमिकों को दी गयी विशेष सुविधाएं समानता के अधिकार के विरूद्ध नहीं समझी जाएंगी।

(ख) भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता – संविधान के अनुच्छेद 19-(1) के अनुसार भारत के नागरिकों को भाषण लेखन, पुस्तक, चलचित्र-प्रदर्शन अथवा अन्य किसी माध्यम से अपने विचारों को प्रकट करने की स्वतंत्रता है। सीमा (Exceptions)- 1951 के संविधान संशोधन के द्वारा सरकार निम्न कारणों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगा सकती है।- (i) राज्य की सुरक्षा (ii) विदेशों से मैत्रीपूर्ण सम्बंध (iii) सार्वजनिक व्यवस्था (iv) अपराध करने को उकसाने से रोकना (v) शिष्टता (vi) न्यायालय का अपमान करना। (vii) अपमान तथा मानहानि को रोकना।

(ग) काम करने का अधिकार – जीवन-यापन के लिए मनुष्य को धन चाहिए। धन परिश्रम करने से प्राप्त होता है। इससे मनुष्य अपने परिवार का पालन पोषण करता है। प्रत्येक को अपनी योग्यतानुसार कार्य देना राज्य का कर्तव्य है, परन्तु भारत ने यह उत्तरदायित्व अपने ऊपर अभी तक नहीं लिया है, परन्तु फिर भी भारत सरकार ने काम करने के घंटों और श्रम के शोषण पर नियंत्रण रखा हुआ है, ताकि पूंजीपति श्रमिकों को शोषण न कर सकें।

आशा करता हूं कि आज का यह पोस्ट बहुत ही ज्ञानवर्धक रहा जिसमें मैंने अधिकार और दावे के बारे में बताया है तथा इसमें अधिकार व्यक्ति की उन्नति के लिए क्यों आवश्यक है विस्तार से बताया गया है। तो आप इसे जरूर शेयर करें और इसी तरह के और भी पोस्ट पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक कर के और भी पोस्ट को पढ़ सकते हैं, बहुत-बहुत धन्यवाद।

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